कोरे कागज सा खाली बेजुबान अह्सास सा हूँ मैं।
दीये सा चमकीला पर खुद अंधकार सा हूँ मैं।
ओंस की बूंदों सा रोशन पर धूप से अनजान सा हूँ मैं।
सागर सा अनंत पर अपनें में नमकीन सा हूँ मैं।
कागज के फूलों सा रंगीन पर बिना खुशबू फीका सा हूँ मैं।
हवा के जैसा शीतल पर खुद में शमशान सा हूँ मैं।
पर्वत सा अटल पर खुद में गुमनाम सा हूँ मैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी संभाला मैनें अपनों को,
फिर भी खाली एक नाम सा हूँ मैं।
मैं गुमनाम सा हूँ।
मनीषा