Kavita(poem)

 हो गई है पीर-पर्वत सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार,पर्दों की तरह हिलने लगी,

लेकिन शर्त ये थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर,हर गली में,हर नगर में,हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग,लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार 

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